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Zindagi

Sharing below a poem I wrote long back, much before I started blogging this year. Reading a blog by Rohit Chawla titled “ज़िंदगी तेरी तमन्ना में तुझको ही बुझा डाला”
triggered it’s memory. So retrieved the same to post!

ज़िन्दगी : मुट्ठी में रेत 

ज़िन्दगी में किसी पड़ाव पर 
जब तक समझ आता है,
इससे और बेहतर 
तरीके से भी तो 
जीया जा सकता था 
तब तक मुट्ठी में 
रेत की तरह से 
फिसल रही होती है ज़िन्दगी! 
भाग दौड़ करके 
इकट्ठी की हुवी 
धन दौलत,
खुद को नज़र अंदाज़ कर 
संजोये रिश्ते नाते,
भर रखते हैं 
दोनों हाथो में | 
कहीं निकल ना जाएँ 
खो ना जाये  का भय !
नासमझी में  हम 
भींच लेते हैं 
और जोर से 
मुट्ठियों को | 
रेत कब फिसल गयी 
मुट्ठियां कब खाली हुवीं 
पता ही नहीं चलता 
और 
भरे के गुमान में ही 
कट जाता है 
हमारा  पूरा जीवन | 

रविन्द्र कुमार करनानी 
2012
rkkarnani@gmail.com
rkkblog1951.wordpress.com




9 thoughts on “Zindagi”

    1. Good one!
      अरे बन्दे!
      क्यों पेशोपेश में हो फंसे
      जिसने पहले समझने की हठ छोड़ी
      और अनुभव की डोर पकड़ी
      वही सही और वही हरदम हँसे
      अपना लो मेरी बात, गर जँचे |
      जीना तो मुझे ही है
      जी ले, जी भर के जी ले
      फिर,क्या फर्क पड़ता है ,
      मैं समझ आई कि नहीं !

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